यह इस क्षेत्र का मुख्य पुरातत्त्व आकर्षण है और जो वर्ष 1971-76 की खुदाई के दौरान ढूँढा गया था। यहाँ 31 टेराकोटा की मोहरे पाई गईं थीं, जिससे प्राचीन कपिलवस्तु के यहां होने के संकेत मिलते हैं, जो शाक्य की राजधानी हुआ करती थी। इन मोहरों पर पहली या दूसरी शताब्दी की ब्राह्मी लिपि में लेखन है। इनमे एक मोहर पर लिखा है: ‘ओम देवपुत्र विहारे कपिलवस्तु भिक्षु संघ्सा।’ यहाँ देवपुत्र का आशय कनिष्क से है, जो बौद्ध धर्म के महान प्रचारक थे और जिसने कपिलवस्तु में सबसे विशाल विहार का निर्माण करवाया था और वहां स्थित स्तूप का पुनर्निर्माण भी कराया। इससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्राचीन कपिलवस्तु नगर उस स्तूप और विहार के निकट ही स्थित होगा।
स्तूप की खुदाई में दो ऐसे बक्से मिले जिनमे जली हुई अस्थियों के अवशेष थे। यह बक्से अलग आकारों के हैं और अपेक्षाकृत कम कठोर पत्थर सोपस्टोन से बने हैं, जिन्हें खरादी के जरिये दक्षतापूर्वक आकार दिया गया है। यह खोज बहुत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि पिछली शताब्दी के अंतिम वर्षों में भी इसी प्रकार के पत्थर से निर्मित एक बक्सा इसी स्तूप से पाया गया था और उस पर अशोक युग की ब्राह्मी लिपि में कुछ अंकित भी था।