असिघाट के सन्दर्भ में उल्लेख है कि दुर्गा ने शुम्भ एवं निशुम्भ राक्षसों का वध करने के पश्चात अपना खड्ग फेंक दिया था। जिस स्थान पर खड्ग गिरा, वहाँ की धरती फट गयी तथा एक जलधारा बह निकली। इसी जलधारा को असि नदी कहा गया और असि एवं गंगा के संगम स्थल को असिघाट कहा जाता है।
प्रातः काल सूर्योदय के समय सुबह-ए-बनारस एक आध्यात्मिक चेतना का अर्ग है जिसमें उदित दिन मणि की आरती, वैदिक मंत्रोचार, क्रिया योग तथा शास्त्रीय संगीत से वन्दन होता है।
यहां अस्सिसंगमेश्वरा नाम का एक और शिवलिंग है जो वास्तव में अस्सी संगम के प्रतीक देव का रूप है। यह शिवलिंग संगमरमर के एक मंदिर में स्थित है। भक्तजन इसके अलावा यहां लोलार्क कुंड के भी दर्शन करते हैं। यह एक आयताकार कुंड है जो जमीन की सतह से 15 मीटर नीचे है। नीचे जाने के लिए खड़ी सीढ़ियों से उतरना पड़ता है। आमतौर पर यह खाली ही रहता है सिवाय लोलार्क मेले (अगस्त-सितम्बर) के जब यहां पुत्र की चाह में हज़ारों भक्तजन भगवान को प्रसन्न करने आते हैं। यह वाराणसी का वह स्थान है जहां सूर्योदय पहले होता है। यह हिंदू धर्म की उत्पत्ति वाले दो स्थानों में से एक है। सूर्य के बारह आदित्य में से एक इस स्थान पर बुद्ध के ज़माने से श्रद्धालु स्नान करने आते रहे हैं।
इसी के पास स्थित है तुलसी घाट, जिसका वास्तविक नाम लोलार्क घाट है लेकिन कवि तुलसीदास के सम्मान में इसे यह नाम दिया गया। 16वीं सदी में तुलसीदासजी यहीं पास में रहते थे। यह स्थान अब जीर्ण-शीर्ण हो चुका है। हनुमान घाट पर यहां रहने वाले दक्षिण भारतीयों ने एक नया मंदिर बनवाया है। कुछ लोगों का मानना है कि यहीं पर 15वीं सदी के वैष्णव संत वल्लभ का जन्म हुआ। वे भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त थे। इसी घाट पर शिव के प्रारंभिक (रुद्र) अवतार श्वान रुरु की मूर्ति भी स्थापित है।